जीवन नदी की तरह सतत प्रवहमान है, लेकिन हम स्वेच्छा से अपना पृथक तालाब खोद लेते हैं और जीवन-प्रवाह से कट जाते हैं। नदी की तरह सक्रिय रहने से ही हम लगातार विकास कर सकते हैं। जे. कृष्णमूर्ति का चिंतन.. आपने भ्रमण करते हुए किसी नदी के निकट कोई एक संकरा-सा तालाब जरू
via जागरण संत-साधक
http://www.jagran.com/spiritual/sant-saadhak-j-krishnamurti-musings-10625682.html
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